Friday, September 4, 2020

Covid Quarantaine Day 1

 My father was tested positive for Coronavirus and here I am sharing his feelings on his home isolation-

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As the pandemic continues,I also experienced some discomfort & got tested for Covid on 2nd September 2020; Fingers were crossed till Arogya Setu flashed red alert on 3 Sep declaring me +ve; Obviously,rest of the actions were attributed to the battle drill of qurantine protocol to isolate myself as we entire family is staying under one roof including my 82 years plus in Laws;The concern for the virus was so intense that once the report came,the expression,reaction & response in whole family was suddenly changed;we did the needful & I had 1st isolated night in quarantine in my life;Infact,the whole humanity is affected fm this virus commonly but the isolation attached with this disease is uncommon from what I heard or experienced in my life;In the year 1993,when I was posted in Jodhpur,my whole family had suffered chicken pox in one go leaving me lone healthy man to take care of wife,son,daughter in mid of severity of fever & worst form of chicken pox;in that situation also,there was some sort of isolation but it didn't deter to be in proximity with family;In 2003,when I was undergoing long hospitalisation due to bullets injuries,there was no feel of isolation except the days of ICU or critical surgeries; family,friends & well-wishers used to visit to boost the morale & extend their wishes for early recovery; But COVID-19 has gave birth to a new definition of isolation which is probably worse than rigorous jail; in Jail, the inmates are allowed limited freedom & enjoy bonehomie as per jail manual without social distancing;the corona virus is highly dreaded due to its potential to spread with contact; therefore,the isolation of corona+ve patient starts from disassociation/social distancing of patient from his own most close family members & this is the element which makes this virus entirely different from others & it happens all of sudden; the shock effect is greater than the disease itself; we are social animals;like air,water,food, we need social proximity to live haply life & this virus takes away this very happiness at its outset- leave life apart; so there is a great need for the near & dears to break the sense of isolation of qurantined person & except phisical distancing, let there be the emotional proximity & symbolic presence all the time to take the patient out of this problem.

Sunday, December 22, 2019

CURSED

He said your hair was messy & eyes were deep,
that your smile was cute & height was a keep.
He said "I am in awe & not able to sleep",
He seemed polished and neat....

He said I have a crush on you,
that you are so red, pink & blue.
He said I loved your voice,
That he made a great choice.

He was hoping for something more,
Like he was keeping some score.
He said he had earned it,
That he was the perfect fit.

"I don't chase girls", he said out loud,
that made him feel so proud.
He said he has the right to,
Like he was desperate to screw.

My body went cold and numb,
Like I was hopeless of the outcome.
He unzipped & left without a word,
while I still live like I was cursed.

Thursday, September 12, 2019

बिटिया रानी....

बिटिया रानी....
*

घर में आते ही,
उसकी आंखें मां को ढुंढ रहीं थी....
थकी हुई खेल कूद के वो बच्ची,
थी बड़ी मासूम सी....

उसने घर के हर कमरे में छापा मारा,
और हर परदा टटोला....
जब ना पाया किसी को, मायूस होकर वो लौट गई बरांम्मदे मे,
वो आदमी पीछे से आया और पुकारा बड़ी प्यार से....

उसने बोला "बिटिया रानी, दूध पी लो, थक गई होगी तुम खेल के",
"तेरी मम्मी गई हैं मारकेट बड़ी देर से, दोनों भाई चले गए साईकिल पे,
और तेरे पापा भी आऐंगे थोड़ी लेट से"।
वो तो बच्ची थी, उसने मान ली बात बड़ी प्यार से....

आदमी ने बच्ची के सीने पर अपना हाथ सेहलाया,
और वही मौका सहीं पाया....
बोला "बेटी तेरे गाल बहुत नाज़ुक हैं,
और तेरे  होंठ बड़े मुलायम हैं"।

बच्ची सहम सी गई,
शायद ये गलत हैं, वो समझ गई....
छूने लगा वो बच्ची को ईधर ऊधर,
वो सन् रही, बोली नहीं कुछ मगर....

बच्ची का हाथ पकड़कर वो ले गया उसे अंधेरे में,
बैठाया उसको अल्मारी के एक कोने में....
बोला उसनें "डरना बिल्कुल नहीं बिटिया रानी,
और ये बात किसी को बताना भी नहीं"।

पिछले दो साल से वो घर में काम कर रहा था,
तभी बच्ची ने आंख बंद कर, उस पर भरोसा कर लिया था...
उसने बच्ची को अपने गोद में बैठा लिया,
और दरवाज़ा धीरे से बंद कर दिया...

अब आगे की कहानी मैं क्या बताऊ,
इस डर को और कितना छुपाऊं....
मैं अकेली क्या करती और कैसे लड़ती,
मैं तो थी केवल ऐक बच्ची सात साल की |

Wednesday, September 11, 2019

दिल्ली

इस्से अच्छा दिल्ली कोई कैसे करे बयान
Poem Credits- Radhika Mehrotra
Follow her on Instagram- feistyferalink


Monday, July 29, 2019

Magnificent

But my darling,
Why this face ?

Why the perfect face?
Why be in a rat race?
Why that perfect figure?
You are magnificent, sugar....

Why the perfect eyes?
Why be in a web of lies?
Why that perfect jawline?
You are magnificent, just smile....

Why the perfect lips?
Why be a doctor's trip?
Why those perfect curves?
You are magnificent, eat your desert....

Why the perfect thighs?
Why be a perfect size?
Why those perfect hips?
You are magnificent, like the eclipse....

Why the perfect skin?
Why be so shrunk & thin?
Why those perfect legs?
You are magnificent, never ever beg....

Why the perfect hair?
Why so heavy on despair?
Why those perfect breasts?
You are magnificent, you need rest....

Why the perfect walk?
Why be so scared to talk?
Why those perfect teeth?
You are magnificent, just breathe....

Why so fearful & become what you are not?
Why be a photoshop?
Why go under the knife?
Why so obsessed with being a perfect wife?

Why so scared of being normal?
You are magnificent my darling,
you are a natural....

Sunday, April 28, 2019

दादाजी....

दादाजी.....
मेरे पिता जी के शब्दों में दादाजी कि कुछ स्मृतियां.....
बाबा (मेरे दादाजी) के बिना मेरा पहला जन्मदिन & बाबा की अनुपस्थिति में मेरी सरार (गांव) में पहली रात...
हम जब भी ट्रेन से गाँव जाते थे और गोंडा स्टेशन के आस पास पहुँच रहे होते थे,बाबूजी का कॉल ज़रूर आता था,” ट्रेन कहाँ तक पहुँची? समय से है या लेट? कितनी लेट है? तो 11 बजे तक तो आ ही जाओगे.”आज भी उसी गोंडा स्टेशन से गुज़र रहा हूँ.कोई फ़ोन नहीं आया.
गाँव के वातावरण में जन्मदिन मनाने की परम्परा नहीं थी.इसी लियें कभी मनाया नहीं.बड़ा होने के बाद कभी भी 14 मार्च के जन्मदिन पर गाँव नहीं रहा. आज 14 मार्च है.मैं गाँव भी जा रहा हूँ.बाबूजी होते तो बधाई व शुभ कामना तो पक्की थी.केक नहीं भी काँटता तो कुछ छोटा मोटा गिफ़्ट देता. लेकिन आज मेरे हाथ में उनकी पवित्र अस्थियों का एक थैला हैं-और भीतर से रूलाई का एक ज़ोरदार ज्वालामुखी.आज दरवाज़े पर टकटकी लगा कर मेरी प्रतीक्षा करने वाला गाँव पर नहीं मिलेगा.वो जल्दी चले गए.कई ख़्वाब अधूरे रह गए.ऐसा शायद बहुतों के साथ होता होगा.माँ पिता बहुत अलग होते हैं.जहाँ तक हो,उनको संजो कर रखिए.
....अभी अभी गोरखपुर रेल्वे स्टेशन पर उतरा.ट्रेन 1 घंटे लेट थी लेकिन इस लेट के लिए,रेलवे को सुनाने वाले बाबूजी तो है नहीं.अगर वो होते तो मुझसे ज़रूर पूछते कि,ट्रेनें समय से क्यों नहीं चलतीं?कुछ खाए पीयें की नहीं?मंटू (मेरे मामाजी) के यहाँ नहा धो कर आओगे या फिर सीधे गाँव?लेकिन अब हम से ये पूछे कौन? मतलब कि,मैं अब चाहे सीधे गाँव जावूँ या फिर रुकते रुकाते जाऊँ- इसकी जिज्ञासा जो पिता जी के अंदर थी उसे अब किसमें खोजूँ?मतलब मैं अब बड़ा हो गया हूँ, कुछ भी करूँ- पूछने वाले समालोचक तो चले गए. अब मैं दुबारा अपरिपक्व बच्चा नहीं बन सकता.वो उत्सकता अब दुबारा देखने को नहीं मिलेगी? सोचता हूँ की पिता जी को भला इस बात की फ़िक्र क्यों रहती थी कि, मैं रेल्वे स्टेशन से सीधे घर क्यों नहीं आ रहा हूँ तो जवाब ये मिलता है कि,पिता जी के अंदर शायद हमको जल्दी से जल्दी देख लेने की चाहत थी-और कोई वज़ह नहीं थी.हम उनका पैर ही तो छूते थे,वो आशीर्वाद दे देते थे.
एक बात और याद आयी-रेल्वे स्टेशन पर उतरते ही,हम 2/3 तरह का अख़बार ख़रीदना नहीं भूलते थे क्योंकि गाँव पहुँचते ही दर्श पर्श के तुरंत ही बाद,वो मुख़्तलिफ़ अखबारो में सिमटी दुनियाँ की ख़बरों को पढ़ कर जो समालोचना करते थे वो अब कौन करेगा?- शायद इसी लिए मैंने आज अख़बार नहीं ख़रीदा. फिर यादें रुलाएँगीं और फिर लिखूँगा- हाँ आज घर पहुँचते ही हमारे घर की चहारदीवारी का गेट कोई और खोलेगा.
अभी अभी घर पहुँचा.पिताजी नहीं मिले.वो कुर्सी ख़ाली है जिस पर बैठ कर वो अपना कान लगाए रहते थे गाड़ी की आवाज़ पर की हम कहाँ तक पहुँचे? अगर हम रात में पहुँचते तो वो उनकी आँखे दूर तक हमारे गाड़ी की लाइट को तलाशतीं थी की हम अभी कितना दूर है?पूछते थे की अमारी के रास्ते आए या गोबडोर के रास्ते?अब उनके छोटे छोटे सवाल,उन्ही के साथ चले गए.सवाल जैसे की- कक्कू (मेरे पिता जी का घर का नाम) का चप्पल लावो,बैग घर में ले जावो,अच्छी चाय बनाना,गमछा- तौलिया जैसे ही उनको हमारे पहुँचने के बारे में पता चलता था-ख़ुद अपने हाथों से पाख़ाना धोते थे - कहते थे की - अच्छी क्वालिटी का ऐसिड और हारपिक मँगाया हूँ जिस से गाँव का पाख़ाना ख़ुद साफ़ करा सकूँ....अभी भी उनको तलाश रहा हूँ-
बाबूजी के बिना गाँव पर आज पहली रात काटने का डर था.संतोष बाबू (मेरे.सबसे छोटे चाचाजी) साथ ही सो रहे थे.शायद इस लिए कि,माया (मेरी माता जी) अभी गाँव आयी नहीं थीं.ऐसी स्थिति में मैं अकेला सोवूँगा तो नींद आए ना आए.लेकिन पिछली रात नींद ठीक आयी क्योंकि पिताजी शायद नहीं चाहते थे कि,उनकी ग़ैरहाज़िरी मेरी कम नींद की वजह ना बने.आदत के मुताबिक़, मुझे रात में उठना पड़ता है.आज रात में भी उठा.जब वो थे तो मैं कितनी भी सावधानी से दरवाज़ा क्यों ना खोलूँ/बंद करूँ,उनको आभास हो जाता था कि, मैं बाथ रूम के लिए उठा हूँ,आवाज़ देते थे-ठीक तो है,अँधेरा तो नहीं,संभाल कर जाना,बाथ रूम में पानी है की नहीं और फिर सो जातें थे.मेरे घर आने पर वो ख़ुद ब ख़ुद अपनी रात की नींद मेरे हिसाब से कर लेते थे.कहते थे की,मुझे ज़्यादा नींद नहीं आती.मैं गुड़ाकेश हूँ लेकिन अब ऐसा हो गया कि वो हमेशा के लिए सो गए.वो सबेरे की चाय जल्दी पीते थे. उम्मीद भी करते थे की,वो जहाँ भी रहें उनकी चाय समय से मिल जाए.गाँव में मेरी भी चाय मेरे कमरे में सबेरे जल्दी भेजते थे.आज की सुबह मुझे उसी चाय का इन्तज़ार है.चाय तो आज भी मिलेगी लेकिन चाय के पीछे पीछे आने वाले बाबूजी अब नहीं मिलेंगे.
....एक बार,आना पाई की साफ़गोई व ईमानदारी पर,अपना दृष्टिकोण बताते हुए,पिता जी ने सुनाया था कि,उस ज़माने में विशुनपुरा इंटर कॉलेज में माध्यमिक क्लास में 1 रुपए 49 पैसे मासिक ट्यूशन फ़ीस लगती थी.ज़्यादातर छात्र 1 रुपया 50 पैसा फ़ीस जमा करते थे लेकिन फ़ुटकर की अव्यवहारिकता की वजह से,पिता जी अस दिन छात्रों को उनका 1 पैसा वापस नहीं कर पाए जिसका परिणाम यह हुआ की उनके पास 50 पैसे अतिरिक्त बच गए.लेकिन शाम को जब वो कॉलेज से गाँव साइकल से वापस आरहे थे,उनकी साइकल पंचर हो गयी जिसे ठीक कराने में उनको 50 पैसा देना पड़ा.वो बहुत पछताये कि मैंने छात्रों को उनका 1 पैसा वापस उसी समय क्यों नहीं किया..?
....लगता था,बाबूजी अपनों की स्मृतियों से अलग ही नहीं होना चाहते थे.स्मृतियों को संजो कर रखते थे.आज गाँव पर मैं उन दस्तावेजों की छँटनी कर रहा था जिसका रख रखाव वो ख़ुद करते थे.उन फटे पुराने मलिन काग़ज़ों के थब्बे से,36 साल पुराना मेरी शादी का कार्ड मिला-2 जुलाई 1983 का.मैं हैरान रह गया कि,इस अभिलेख को इतने वर्षों तक सम्भाल कर रखे रहने के पीछे क्या वजह रही होगी. मेरे विवाह में ना कोई फ़ोटोग्राफ़र था ना ही कैमरा. बच्चे मुझसे जब भी मेरे शादी की फ़ोटो इत्यादि के बारे में पूछते तो मैं कह देता था की,उस समय फ़ोटो वग़ैरा आसान नहीं था.शादी की यादों के नाम पर पत्नी,बच्चों का वजूद और कुछ चश्मदीद बराती लेकिन,पिता जी के अभिलेख़ागार से मिला आज 36 वर्ष पुराना शादी का यह कार्ड मेरे मन को छू गया.अपने बच्चों के जीवन से जुड़ी यादों से वो शायद अलग ही नहीं होना चाहते थे-तब तक जब तक कि,वो स्वयं अपने जीवन से अलग नहीं हो गए. स्वर्ग से भी उनकी आँखे शायद यही कह रही हैं कि, अपनों और अपनों की यादों से हमेशा जोड़ कर रखना-हमेशा...
...पिताजी की अस्थियों का काशी में विसर्जन करना था.परम्परा अनुसार गाँव में यमघंट आदि बाँधने के बाद ही काशी जाना था,सो मैं सर्वप्रथम गाँव पहुँचा.घर की चहारदीवारी के नज़दीक पहुँचते ही कुछ मुरझाएपन का अहसास हुआ.आम,लीची, बेल,आँवला व अनार के वे पेड़ जिनके आरोपण, पलने,बढ़ने,फलने व फूलने तक की यात्रा में बाबूजी उन्हें निहारते रहते थे,उनके उत्तरोत्तर विकासयात्रा के साक्षी थे-वे पेड़ शांत थे और कुछ मुरझाए भी. कंपाउंड में लगे मदार व शमी के पेड़ जिनको वे बहुत शुभकर बताते थे,वे भी सम्भवतः जीवन का दर्शन बयान कर रहे थे.पिताजी कहते रहते थे कि यह शमी का वह पेड़ है जिसमें अर्जुन ने अज्ञातवास के दौरान अपना गांडीव छुपा रखा था.पदरवाज़े पर बंधी गाएँ मुझ से पूछ रही थीं कि,होली मनाने आए हो क्या? फिर बाबूजी को कहाँ छोड़ आए?मैं निरुत्तर था.बरामदे में नज़र पड़ी तो पिताजी की अनुपस्थिति में भी एक अदृश्य उपस्थिति थी.बंद बाथरूम के होते हुए भी पिताबाहर के हैंडपम्प पर ही नहाते थे.शायद वहाँ से सूर्य की परिक्रमा करना,शंकर भगवान की मूर्ति व त्रिशूल को जल देना व फूल चुन कर पूजा करना उनको आसान लगता था.ये सभी वस्तुएँ अपने प्रेमी को तलाश रही थीं.सभी लोग थे लेकिन इनका पारखी व प्रयोगकर्ता उनसे दूर चला गया था.ख़ैर इसी को तो जीवन कहते है.कोई अमर तो है नहीं.अपनों को खोना,खोकर संजोना और याद करना .
....पिताजी के जीवन में,अनुशासन का बहुत महत्व था.वे पेड़-पौधा,जीव-जंतु व पशु-पक्षी से भी एक अनुशासित व्यवहार रखते थे व हम लोगों से भी ऐसी ही अपेक्षा करते थे.नवम्बर 1973 का वाकिया है जब मैं 7th क्लास में था.मेरी बुआ जी की विदाई थी.मेरे दरवाज़े पर बाराती व मेहमानो का हुजूम मैजूद था.काफ़ी चहल-पहल था व सेवा-सत्कार का कार्यक्रम चल रहा था.पढ़ाई से कुछ break लेते हुए मैं बाहर घूम रहा था की तभी एक काला कुत्ता दिखाई दिया.वह कुत्ता हमारे गाँव के दुर्गाधर दुबे का था.लगभग सभी को पता था कि,ये कुत्ता बदमाश मिज़ाज का है.कुत्ते की छवि के बारे में पता तो मुझे भी था लेकिन,शरारतवश मेरे मन में कुछ नया प्रयोग करने का विचार आया.मैंने सामने पड़ी एक लम्बी लाठी लिया और कुत्ते की मुँह में घुसा कर उसके धैर्य  की परीक्षा लेने लगा.सरेआम होता इस प्रयोग से कुत्ता ग़ुस्से मे बड़ी तेज़ी से झपटा और मुझे काट लिया और काटने के बाद वहीं चहलक़दमी करता रहा.शोर मच गया.मेरा ख़ून बह रहा था.ऐसी घटना पर पिता जी का first response तय था,सो वे दौड़ कर पहुँच गए. उनसे मेरी अपेक्षा यह थी कि,वे मेरी मरहम पट्टी करेंगे या सांत्वना देंगे तथा मुझे काटने वाले कुत्ते की खोज ख़बर लेंगे लेकिन, सब कुछ उल्टा हुआ.सधे थानेदार की तरह पिताजी ने वहाँ इकट्ठी भीड़ से घटनाक्रम का जायज़ा लिया और पूछा की ये सब कैसे हुआ?बात चीत के बाद उनको ये पता चल गया की इस पूरे चकल्लस के पीछे,कुत्ते के मुँह में लाठी डालकर ठिठोली किए जाने का प्रयोग मैंने किया है.उन्हें लगा कि मुझे कुत्ते के साथ इतनी बड़ी अनुसाशनहीनता करने की क्या आवश्यकता थी? आव ना देखा ताव..मेरे ऊपर धमाधम लात-जूता, थप्पड़ की बारिश शुरू कर दी.एक तरफ़ कुत्ते से काटे जाने का घाव और विजय पताका फहराते हुए काले कुत्ते की ख़ुद की गर्वपूर्ण उपस्थिति- दूसरी तरफ़ सभी बाराती व मेहमानो के समक्ष पिताजी के हाथो पिटायी का जो अभूतपूर्व नज़ारा मुझे देखने को मिला वो अपने आप में अद्वितीय था.मुझे भी अपनी ग़लती का एहसास हुआ लेकिन इस पूरे घटनाक्रम में सबसे सुरक्षित व गौरवान्वित वो काला कुत्ता था.हालाँकि अगले दिन पिताजी मुझे सदर हास्पिटल गोरखपुर ले गए- बोनस के तौर पर चौदह इंच के कुछ इंजेक्शन मुझे लगे और अंततः पिताजी के प्यार व चिंता ने मुझे कुत्ते के ज़हर से मुक्त किया..
सनातन धर्म की परम्परा और पुराणों के मुताबिक़ इच्छा थी कि,पिताजी का अंतिम संस्कार व उससे जुड़ा कर्मकांड विधिवत करूँ.पिताजी स्वतःशुद्ध सनातन धर्म के अनुयायी थे और पूजा-पाठ व रीति रिवाजों में बहुत गहरा विश्वास रखते थे.इन १२ दिनो के कर्मकांड व रीति रिवाज कुछ इसी तरह से बनाए गए है कि,मृत्यु के बाद के हर दिन की क्रिया मृतात्मा का वियोग-शमन करती है.कितना विचित्र है मानव कि,अपने परिजन की मृत्यु-छोभ से धीरे धीरे स्वयं को किस तरह सामान्य करने लगता है.२३ मार्च श्राद्ध के दिन मुझे ख़याल आया कि,अतीत में घर पर होने वाले सभी समारोह व कार्यक्रम में आगंतुको का reception मेरे पिताजी स्वयं करते थे लेकिन,आज तो उस “चीफ़ रिसेप्शनिस्ट”का स्वयं का श्राद्ध है.बड़ा पुत्र होने के कारण पिताजी की भूमिका अब मुझे निभानी पड़ेगी.यही तो पिता रूपी आवरण था,यही तो शामियाना रूपी मेरा आशियाना था,पिता की उपस्थिति का यही तो वो सुरक्षा कवच था जिसने मुझे निर्द्वंद व निश्चिन्त बना रखा था- लेकिन अब वो आवरण नहीं रहा.२३ मार्च को आगंतुको की आँखें मेरे पिताजी रहित परिवार को देखने की अभ्यसत नहीं थीं.उनकी ग़ैरहाज़िरी में सभी आँखें अब मुझे तलाश रही थीं संवेदना प्रगट करने के लिए.मैंने फटाफट ख़ुद को उस किरदार के लिए तैयार किया और आने जाने वालों का यह सिलसिला रात ११ बजे तक चलता रहा.बाक़ी सभी जिम्मेदारी भाई लोग संभाल रहे थे.पिताजी के तमाम आदरणीय समकक्षी-गण संवेदना के साथ साथ मुझे नसीहत भी दे रहे थे.आगे की ज़िम्मेदारीयों के बारे में आगाह भी कर रहे थे और पिता जी की अनुपस्थिति में मुझे मेरे कर्तव्यों के बारे में अहसास भी दिला रहे थे.ऐसे लग रहा था कि मैं 56 साल का होकर भी अभी बालक हूँ-शायद इस लिए कि,पिता की उपस्थिति रूपी भारी छायादार बटवृक्ष  के नीचे बेटा उम्र में कितना भी बड़ा क्यों ना हो,उसको जीवन के धूप का अनुभव नहीं रहता-तभी तो लोग समझा रहे थे.आज के कार्यक्रम में छोभ था तो स्वागतभाव भी.भावनाओं का ग़ुबार था तो धन्यवाद ज्ञापन भी.आँसू थे तो हँसी भी.पिताजी की अनुपस्थिति का ग़म था तो नए मेहमानो से मुलाक़ात का सुख भी.सुख-दुःख जीवन के दो पहिए है.एक को रोक कर दूसरे को नहीं चलाया जा सकता.यही जीवन है.

Tuesday, April 2, 2019

The Horror

There it was,
staring right back at me...
I shook there in horror,
Like a cup of cold tea....

There it was,
disgusting, pale & white....
Dancing with the winds,
With a feeling of utmost pride....

There it was,
Growing long & strong....
Making new friends around,
It was all things wrong....

There it was,
As I looked closer to the mirror....
There it was, shiny & bright..
A few strung of white hairs....
I picked up the scissors...
& was ready to fight